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भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के समय मातृशक्ति जितनी जागृत हुई, उतनी शायद ही कभी रही। भारत को परतंत्रता की बेडिय़ों से मुक्त कराने के लिए देश प्रेमी महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के अवसर पर आज हम आपको एक ऐसी ही महिला क्रांतिकारी सुशीला मोहन उर्फ सुशीला दीदी की कहानी बता रहे हैं, जिन्होंने काकोरी कांड में फंसे क्रांतिकारियों को बचाने के लिए अपनी शादी के लिए रखा गया सोना तक बेच दिया था।

सुशीला का जन्म 5 मार्च, 1905 को पंजाब के दत्तोचूहड़ (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। पिता डाक्टर करमचंद अंग्रेजों की सेना में मेडिकल अफसर थे, किंतु विश्वयुद्ध की विभीषिका को देखकर उन्हें अंग्रेजों से घृणा हो गई। यही कारण रहा कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई राय साहब की उपाधि अस्वीकार कर दी।

सुशीला जब किशोरावस्था में थीं तभी मां का देहावसान हो गया। दो भाई और तीन बहनों में वह सबसे बड़ी थीं। सुशीला की शिक्षा जालंधर कन्या विद्यालय से हुई और उन्हें देशभक्ति की प्रेरणा इसी विद्यालय की प्राचार्य रहीं कुमारी लज्जावती से मिली।

क्रांतिकारियों की प्रेरणा बन गया था उनका पंजाबी गीत

लाला लाजपत राय की गिरफ्तारी से आक्रोशित होकर सुशीला ने एक पंजाबी गीत लिखा- गया ब्याहन आजादी लाडा भारत दा! यह गीत उस समय क्रांतिकारियों का पसंदीदा गीत बन गया था। सुशीला मोहन पढ़ाई के साथ-साथ कई क्रांतिकारी संगठनों से भी जुड़ गईं। इनमें क्रांतिकारियों को गुप्त सूचनाएं पहुंचाना, क्रांति की ज्वाला जनमानस में जगाने के लिए पर्चे आदि बांटना जैसे कार्य शामिल थे।

सुशीला मोहन से सुशीला दीदी बनने की कहानी

सुशीला की देशभक्ति देखकर उनके स्कूल की प्राचार्य लज्जावती ने ही उनकी भेंट दुर्गाभाभी से कराई। धीरे-धीरे दोनों की घनिष्ठता इस कदर बढ़ी कि उनके बीच ननद-भाभी का रिश्ता बन गया। इसके पश्चात सभी क्रांतिकारियों के लिए सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी हो गईं।

क्रांतिकारियों की फांसी की खबर सुन हो गईं थी बेहोश

वर्ष 1926 में देहरादून में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर पहली बार उनकी मुलाकात सरदार भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा (दुर्गा भाभी के पति) और बलदेव से हुई। वर्ष 1927 में जब काकोरी कांड के क्रांतिकारियों की फांसी की खबर सुशीला दीदी को लगी तो यह सुनकर ही वह बेहोश हो गई थीं।

शादी के लिए रखा 10 तोला सोना बेच दिया

काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को बचाने के लिए सुशीला दीदी ने मां द्वारा उनकी शादी के लिए रखा गया 10 तोला सोना मुकदमे की पैरवी के लिए दे दिया। हांलाकि उनका यह त्याग भी क्रांतिवीरों को फांसी के फंदे से न बचा सका।

कलकत्ता में की शिक्षिका की नौकरी

स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात सुशीला कलकत्ता (अब कोलकाता) चली गई। वहीं उन्होंने शिक्षिका की नौकरी भी कर ली, लेकिन कलकत्ता में रहते हुए भी वह देश प्रेम से विमुख न हुईं। वह गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की मदद करती रहीं।

असेंबली में बम फेंकने से पूर्व भगत सिंह व बटुकेश्वर से मुलाकात

वर्ष 1928 में सांडर्स वध के बाद भगत सिंह और दुर्गा भाभी जब भेष बदलकर लाहौर (अब पाकिस्तान में) से कलकत्ता पहुंचे तो भगवतीचरण वोहरा और सुशीला दीदी ने स्टेशन पर उनका स्वागत किया। यही नहीं कलकत्ता में उनके ठहरने का इंतजाम भी सुशीला दीदी ने ही किया।

आठ अप्रैल, 1929 को केंद्रीय असेंबली, दिल्ली में बम फेंकने से पूर्व भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जिन तीन लोगों से मिले थे, उनमें दुर्गा भाभी, भाई भगवती चरण और सुशीला दीदी का नाम शामिल था।

भगत सिंह को बचाने के लिए महात्मा गांधी के सामने रखा था प्रस्ताव

लाहौर षड्यंत्र केस में गिरफ्तारी के पश्चात भगत सिंह के मुकदमे की पैरवी के लिए फंड जुटाने से लेकर चंद्रशेखर आजाद की सलाह पर भगत सिंह और उनके साथियों को छुड़ाने के लिए गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह की फांसी को कारावास में बदलने की शर्त लेकर सुशीला दीदी महात्मा गांधी से मिलने तक गईं, किंतु गांधी ने इस शर्त को समझौते में रखने से साफ इन्कार कर दिया था।

क्रांतिकारी साथी से ही किया विवाह

सुशीला दीदी को वर्ष 1932 में क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि छह माह के कारावास के बाद इन्हें छोड़ दिया गया। वर्ष 1933 में सुशीला दीदी ने क्रांतिकारी साथी रहे दिल्ली के श्याम मोहन से विवाह कर लिया। शादी के बाद सुशीला दीदी ने गरीब और असहाय स्त्रियों की सहायता के लिए दिल्ली में महिला शिल्प विद्यालय की स्थापना की।

स्वाधीनता के बाद दुनिया को कहा अलविदा

देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली वीरांगना सुशीला दीदी स्वाधीनता के पश्चात आर्थिक अभाव व खराब स्वास्थ्य के चलते 13 जनवरी, 1963 को इस दुनिया से अलविदा कह गईं। उनकी मृत्यु पर क्रांतिकारी वैशंपायन ने कहा था- दीदी! तुम्हें शत-शत नमन! तुम्हारी पहचान अभी नहीं हुई, पर बाद में जरूर होगी।

हालांकि यह देश का दुर्भाग्य रहा कि हम सुशीला दीदी जैसी सैकड़ों वीरांगनाओं का स्वाधीनता में योगदान तो छोडि़ए, उनका नाम तक विस्मृत कर चुके हैं।