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स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में आज हम बात करेंगे बंगाल की पहली महिला राजनीतिक बंदी ननीबाला देवी की जिन्होंने क्रांतिवीरों की मदद के लिए विधवा होते हुए भी दुल्हन का वेश धारण किया और घोर अमानवीय प्रताडऩा के बावजूद अंग्रेजों को क्रांतिकारी गतिविधियों की जानकारी नहीं दी…

ननीबाला देवी का जन्म वर्ष 1888 में हावड़ा जिले के बाली शहर में हुआ था। इनके पिता का नाम सूर्यकांत बनर्जी व माता का नाम गिरीबाला देवी था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह हो गया था, लेकिन पांच वर्ष के पश्चात ही इनके पति का देहावसान हो गया। तत्पश्चात वह मायके में आकर रहने लगीं। फिर उन्होंने पिता से आगे की पढ़ाई करने की इच्छा व्यक्त की, स्वीकृति मिलते ही ननीबाला ने अपना सारा ध्यान अध्ययन में लगा दिया।

कुछ समय बाद वह युगांतर पार्टी के शीर्ष नेता एवं दूर के रिश्ते से भतीजे अमरेंद्र नाथ चटर्जी से मिलीं। अमरेंद्र से ही प्रेरित होकर वह क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रियता से जुड़ गईं। अब उन्हें अपने जीवन का ध्येय मिल चुका था वह था राष्ट्र के प्रति सर्वस्व समर्पण। युगांतर पार्टी से जुड़कर वह क्रांतिकारियों के ठहरने का प्रबंध, अस्त्र-शस्त्र छिपाने एवं क्रांति के लिए युवक-युवतियों का चयन और प्रशिक्षण आदि कार्य करने लगीं।

वर्ष 1915 में युगांतर के बड़े नेता रामचंद्र मजूमदार को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। रामचंद्र के पास युगांतर की क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां थीं, जिनके विषय में जानना क्रांतिकारियों के लिए बहुत जरूरी था। जेल में रामचंद्र से मिलकर जानकारी लाने का जिम्मा ननीबाला को सौंपा गया। तय योजनानुसार उन्हें रामचंद्र की पत्नी बनकर जेल में जाना था। किसी विधवा स्त्री के लिए उस दौर में साज-सज्जा तो दूर, सफेद रंग के अलावा किसी अन्य रंग के वस्त्र पहनना भी पाप माना जाता था, किंतु धन्य है वह स्त्री जिसने राष्ट्रहित के लिए अपने सतीत्व को लोकलाज की अग्नि में अर्पित कर दिया।

वीरांगना ननीबाला पूरा साज-श्रृंगार करके जेल में रामचंद्र से मिलने गईं साथ ही गुप्त जानकारियां लेकर लौटीं। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए युगांतर पार्टी में उनकी खूब प्रशंसा हुई। नौ सितंबर, 1915 को बाघा जतिन की अंग्रेजों से मुठभेड़ हुई, जिसमें वह गोली लगने से घायल हो गए। जख्म गहरा होने के कारण अगले ही दिन उनकी मृत्यु हो गई। बाघा जतिन के हिंदू-जर्मन षड्यंत्र से भयभीत होकर अंग्रेजों ने युगांतर से जुड़े सभी क्रांतिकारियों की खोजबीन शुरू कर दी। इसके चलते युगांतर के सभी विद्रोहियों को भूमिगत होकर क्रांति की योजना बनाने पर मजबूर होना पड़ा। इस दौरान ननीबाला देवी ने क्रांतिकारियों के लिए आश्रय स्थल खोजने में बहुत मदद की। उन्होंने चंदन नगर में किराए पर मकान लेकर युगांतर के मुख्य क्रांतिकारियों जादू गोपाल मुखर्जी, अमरेंद्र नाथ चटर्जी, शिव भूषण दत्त आदि को शरण दी। क्रांतिकारी दिनभर घर में क्रांति की योजना बनाते एवं रात के अंधेरे में अंग्रेज पुलिस को चकमा देकर अपने कार्यों को अंजाम देते।

वहीं दूसरी ओर पुलिस को खोजबीन में पता चला कि युगांतर पार्टी के नेता रामचंद्र मजूमदार की शादी ही नहीं हुई है। ऐसे में उनकी पत्नी बनकर आखिर उनसे मिलने कौन आया था। परत दर परत खुलने पर ननीबाला का नाम सामने आया। इस बात की भनक लगते ही ननीबाला ने बंगाल छोड़कर पेशावर जाने का निर्णय लिया। पुलिस से छिपकर वह पेशावर चली गईं। वहां भूमिगत होकर वह कार्य करने लगीं। उनकी कोई खोज खबर न लगने के कारण पुलिस को उन पर इनाम तक रखना पड़ा।

कुछ समय पश्चात हैजा हो जाने के कारण उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। इससे वह घर पर ही स्वास्थ्य लाभ ले रही थीं। पुलिस को जैसे ही उनके घर की जानकारी मिली, उन्हें बीमारी की हालत में ही गिरफ्तार कर लिया गया। युगांतर से जुड़ी गुप्त सूचनाएं प्राप्त करने के लिए कई दिनों उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गईं।

पुलिस द्वारा उन पर इस कदर अत्याचार किया गया कि महिला पुलिसकर्मियों द्वारा उनके गुप्तांगों में पिसी लाल मिर्च तक डाली गई, किंतु पुलिस की यातनाएं भी वीरांगना ननीबाला के हौसलों को डिगा न सकीं। विवश होकर उन्हें जेल भेज दिया गया, किंतु जेल में भी उनकी मुश्किलें कम न हुईं। जेल में उनसे कड़ा श्रम करवाया जाता, जिससे विवश होकर उन्होंने भूख हड़ताल प्रारंभ कर दी। जेल अधिकारी गोल्डी की लाख कोशिशों के बावजूद ननीबाला अपनी मांग पर डटी रहीं।

आखिरकार जेलर गोल्डी ने उनसे पूछा- कैसे खाएगी? इसके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा- यदि मुझे मां शारदा देवी आश्रम में रखा जाए। उन्होंने आश्रम के नाम एक पत्र लिखकर जेलर गोल्डी को दे दिया। जेलर ने उनके पत्र को फाड़कर, उसके टुकड़े उनके आगे फेंक दिए। इस कुकृत्य को देखकर ननीबाला देवी ने जेलर को एक जोरदार थप्पड़ जड़ा। उन्होंने जेलर से कहा कि हिंदुस्तानियों को अपने धर्म के साथ मजाक बिल्कुल पसंद नहीं है। करीब 21 दिन बाद उनकी सभी मांगें प्रशासन द्वारा स्वीकार कर लेने के बाद उन्होंने अपनी भूख हड़ताल तोड़ी साथ ही वह बंगाल की प्रथम महिला राजनीतिक बंदी कहलायीं।

वर्ष 1919 में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया, लेकिन देश के प्रति असीम त्याग के बावजूद किसी ने उनकी सुध न ली। अंग्रेजों के डर से उन्हें किसी ने आश्रय नहीं दिया। कष्ट और बीमारी झेलते हुए उन्होंने अपना अंतिम समय कोलकाता की एक बस्ती में गुजारा। वर्ष 1967 में उनका देहावसान हो गया।