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स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में चाफेकर बंधुओं के रूप में पहली बार ऐसा हुआ था जब एक ही मां की तीन संतानें हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चढ़ गईं। छत्रपति शिवाजी महाराज के पराक्रम का संदेश देने तथा गणेश उत्सव में राष्ट्रभक्ति के श्लोक गाने वाले इन वीरोंं का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान अतळ्ल्य था।

आजादी का अमृत महोत्सव मनाने का मूल उद्देश्य उन क्रांतिकारियों के संघर्षों का स्मरण करना है, जिनके बलिदान से हम गुलामी की बेड़ियों से आजाद हो पाए। आज हम बात कर रहे हैं आजादी के ऐसे ही योद्धाओं की, जिनका जिक्र चाफेकर बंधु के नाम से होता है। ये हैं दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर एवं वासुदेव हरि चाफेकर। पुणे के ग्राम चिंचवड के प्रसिद्ध कीर्तनकार हरिपंत चाफेकर के घर जन्मे चाफेकर बंधुओं ने लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से अपने साथी युवकों के साथ मिलकर वर्ष 1894 में हिंदू धर्म रक्षिणी सभा की स्थापना की। इस सभा का प्रारंभ शिवाजी श्लोक व गणपति श्लोक से होता था।

उनमें राष्ट्रप्रेम की एक अद्भुत ज्वाला थी, जिसमें तपकर वीर क्रांतिकारियों ने अपने पराक्रम को दर्शाते हुए इस प्रकार कहा था- ‘शिवाजी की कहानी दोहराने मात्र से स्वाधीनता प्राप्त नहीं हो सकती। आवश्यकता इस बात की है कि शिवाजी और बाजीराव की तरह तीव्र गति के साथ कार्य किए जाएं। हमें राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के युद्ध क्षेत्र में जीवन का खतरा उठाना होगा।’ इसी प्रकार उनके गणपति श्लोक भी देश के युवकों एवं किशोरों को स्वातंत्र्य की खातिर बलिदान होने की प्रेरणा देते थे। ऐसे ही एक श्लोक में कहा गया था- ‘गौ और धर्म की रक्षा के लिए उठ खड़े हो। गुलामी की जिंदगी से शर्मिंदा हो। नपुंसक की तरह धरती का बोझ मत बनो।’

छलनी हो गए नाकारा अधिकारी

वर्ष 1897 में पुणे में प्लेग महामारी विकराल रूप धारण कर रही थी। महामारी से मुक्ति के लिए जब अंग्रेज अधिकारियों ने कोई खास प्रयास नहीं किया, तो इस स्थिति को देखते हुए तिलक जी के परामर्श से तीनों भाइयों ने क्रांति का मार्ग चुन लिया। साथ ही संकल्प किया कि वे प्लेग कमिश्नर वाल्टर चाल्र्स रैंड और एक अन्य अधिकारी अयस्र्ट का वध करके ही दम लेंगे। 22 जून, 1897 को महारानी विक्टोरिया का 60वां जन्मदिन हीरक जयंती के रूप में पुणे के गवर्नमेंट हाउस में मनाया जाना था। सूचना थी कि अंग्रेज अधिकारी रैंड और अयस्र्ट भी इस आयोजन में सम्मिलित होंगे। इस अवसर का लाभ उठाकर दामोदर हरि चाफेकर एवं बालकृष्ण हरि चाफेकर के साथ उनके मित्र विनायक रानाडे वहां पहुंचे। दामोदर हरि चाफेकर ने कमिश्नर रैंड की बग्घी पर चढ़कर उसे गोली मार दी व बालकृष्ण हरि चाफेकर ने अयस्र्ट को गोलियों से छलनी कर दिया।

धोखे से हुई गिरफ्तारी

जिस भी भारतीय ने यह खबर सुनी उसकी छाती गर्व से चौड़ी हो गई। तब अंग्रेज अधीक्षक ब्रुइन ने ऐलान किया कि जो भी व्यक्ति इन फरार लोगों की सूचना देगा उसे 20 हजार रुपए इनाम मिलेगा। चाफेकर बंधुओं के ही सहयोगी रहे द्रविड़ बंधु (गणेश शंकर एवं रामचंद्र) ने इनाम के लालच में उनका पता ब्रुइन को बता दिया। तत्पश्चात बड़े भाई दामोदर हरि को पकड़ लिया गया, किंतु बालकृष्ण हरि को पकड़ न सके। जिला सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि को फांसी की सजा सुनाई।

फांसी से पूर्व लोकमान्य तिलक दामोदर हरि से मिले एवं उन्हें गीता की प्रति भेंट की। 18 अप्रैल, 1898 को वही गीता हाथ में लेकर भारतमाता का वीर सपूत फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते बलिदान हो गया। तमाम हथकंडों के बाद भी जब पुलिस बालकृष्ण को पकड़ न पाई तो बौखलाए अंग्रेज उनके निरपराध सगे-संबंधियों को परेशान करने लगे। इससे आहत होकर उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी दे दी। इस बीच सबसे छोटे भाई वासुदेव हरि चाफेकर ने सहयोगियों के साथ मिलकर 8 फरवरी, 1899 को द्रविड़ बंधुओं को मौत के घाट उतार दिया था। जिसके बाद वासुदेव चाफेकर को उसी वर्ष 8 मई और बालकृष्ण चाफेकर को 12 मई को यरवदा जेल में फांसी दे दी गई।

धन्य है ऐसी मां

भारतीय इतिहास में पहली बार एक ही माता की तीन-तीन संतानों ने वंदे मातरम का जयघोष करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। जब भगिनी निवेदिता चाफेकर बंधुओं की मां दुर्गाबाई चाफेकर को सांत्वना देने गई तो मां ने निवेदिता से कहा, ‘इसमें शोक कैसा? मेरे बेटे तो दुखियों-पीड़ितों की रक्षा में बलिदान हो गए और इसलिए फांसी चढ़े कि देश का भला हो। बेटी! तुम दुख मत करो, तुम्हारे दुख करने से तो इन हुतात्माओं का निरादर होगा।’ धन्य हैं ऐसी मां जिन्होंने चाफेकर बंधुओं जैसे वीर सपूतों को जन्म दिया!